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पतंजलि में किसी भी कुल, वंश, जाति व सम्प्रदाय में पैदा हुए स्त्री-पुरुष को समान शिक्षा : स्वामी रामदेव।

यदि व्यक्ति अपने कर्म से द्विज नहीं है तो जन्म से द्विज होना भी व्यर्थ है। उच्चता, पवित्रता तथा विद्वत्ता पर सभी समान अधिकार : आचार्य बालकृष्ण।

हरिद्वार, 24 दिसम्बर 25

पतंजलि योगपीठ के संस्थापक अध्यक्ष स्वामी रामदेव जी तथा महामंत्री आचार्य बालकृष्ण जी के दिशानिर्देशन में पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय (पतंजलि भारतीय आयुर्विज्ञान एवं अनुसंधान संस्थान) के नवप्रवेशित छात्र-छात्राओं का शिक्षारम्भ एवं एवं उपनयन संस्कार पतंजलि योगपीठ स्थित आयुर्वेद भवन सभागार में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर स्वामी जी महाराज ने कहा कि पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय के विद्यार्थी यहाँ पर दीक्षित होकर चिकित्सक की भूमिका में आएँगे तथा स्वदेशी चिकित्सा के हमारे ध्येय संकल्प को पूरे विश्व में स्थापित करने का कार्य करेंगे।

उन्होंने कहा कि हमें अपने सनातन धर्म, वेद धर्म, ऋषि धर्म तथा अपने पूर्वजों में दृढ़ता होनी चाहिए। कालांतर में यज्ञोपवित, वेद, धर्म व अध्यात्म के नाम पर भ्रांतियाँ समाज में व्याप्त हो रही थी। पतंजलि योगपीठ ने इन सभी भ्रांतियों को समाप्त किया है। हमने किसी भी कुल, वंश, जाति व सम्प्रदाय में पैदा हुए व्यक्ति को समान शिक्षा प्रदान की है। हमने न केवल स्त्री-पुरुषों का भेद समाप्त कर बेटियों को यज्ञोपवित धारण करवाया अपितु आज पतंजलि की बेटियाँ आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ व्याकरण, शास्त्र से लेकर वेदों में भी निष्णात हो रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय शिक्षा बोर्ड के माध्यम से आधुनिक शिक्षा में नवीन क्रांति हो रही है।

कार्यक्रम में आचार्य बालकृष्ण जी ने कहा कि यज्ञोपवित मात्र प्रतीक नहीं है, यह हमारे सौभाग्य का पर्व है। जीवन के पूर्वार्द्ध के बाद आप उत्तरार्द्ध की ओर जाएँगे यानि शिक्षा के उपरान्त सेवा कार्य करेंगे तब आपको यज्ञोपवीत की महत्ता का आभास होगा।

उन्होंने कहा कि दुनिया में आए प्रत्येक मनुष्य पर तीन ऋण होते हैं- पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण। यज्ञोपवित के तीन धागे हमारे तीन ऋणों का प्रतीक हैं जो हमें सदैव यह स्मरण कराते रहते हैं कि हमें परमात्मा, हमारे पूर्वज ऋषियों व गुरुजनों तथा माता-पिता के ऋण से उऋण होना है। इसका एकमात्र मार्ग हमारे सद्कर्म हैं। इस यज्ञोपवित को धारण करते समय हम तीन ऋणों से उऋण होने के लिए संकल्पबद्ध होते हैं। समय व कालखण्ड के प्रभाव से यज्ञोपवित धारण करने की परंपरा भी विकृत होती गई। पहले यह धर्म विशेष तथा बाद में स्त्री-पुरुष के भेद में विकृत हुई। महर्षि दयानंद ने इस व्यवस्था में सुधार किया, उनके अनुसार यज्ञोपवीत का अधिकार किसी विशेष जाति या लिंग तक सीमित नहीं होना चाहिए। पतंजलि भी महर्षि दयानंद के आदर्शों पर गतिमान है। यहाँ यज्ञोपवित को लेकर मत-पंथ-संप्रदाय तथा स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है। आचार्य जी ने कहा कि यदि व्यक्ति अपने कर्म से द्विज नहीं है तो जन्म से द्विज होना भी व्यर्थ है। उच्चता, पवित्रता तथा विद्वत्ता को पाने का सभी का समान रूप से अधिकार है।

इस अवसर पर संप्रेषण विभाग प्रमुख बहन पारूल, मुख्य महाप्रबंधक ब्रिगेडियर टी.सी. मल्होत्रा (से.नि.), स्वामी परमार्थदेव, पतंजलि आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अनिल यादव व डॉ. गिरिश के.जे., डॉ. राजेश मिश्र, साध्वी देवसुमना, साध्वी देवस्वस्ति, साध्वी देवविभा सहित महाविद्यालय के समस्त शिक्षकगणों उपस्थित रहे।

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